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जिंदगी

तेरी   यादों   से     तर -बतर  जिंदगी.  कुछ  इस  तरह  रही है गुजर  जिंदगी.  हम  मिले  यहां  तुमसे  हसीं  मोड पर, जहां  तय  कर  रही  है  सफर  जिंदगी.  एक    पहेली    है     तेरी    बातों    में,  खो   जाती  है  चलती  जिधर   जिंदगी.  हमारा  मिलना  एक  पल  के  लिए  है,  फिर   जाएगी   जाने    किधर   जिंदगी.  दिल की हसरतें कुछ भी बाकी  न रख,  जाने   कब   हो  जाए   सिफ़र  जिंदगी. -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.

कोरोना-गीत -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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होलिया बीतलइ  भइया रे  दिवलियो बीततइ नS.  कोरोना से देशवा हमर  जरू रे जीततइ  नS.  बच-बच के रहिह सब लोग  आउ मास्क पहिन के चलिह  मास्क न रहतो तो तू  गमछा ले के ही तब निकलिह साबुन से हथवा मलब तो  कीटाणु मरतइ नS.   खान-पान के ध्यान तू रखिह  तुलसी-अदरक पीहS कभी गिलोय के स्वरस दिन में  एक-दु-बार तू लीहS नमक-पानी से करिह गलगला  तन क्षमता बढ़तइ नS. सरकारी अमला कर रहलन हे  इहाँ अपन-अपन काज अपनही संभल के रहेला हे  हमनी सब के आज  अपन रक्षा अपने ही करेके  समइया अयलइ नS. -धर्मेन्द्र कुमार पाठक.     

कोरोना के खतरा में (मगही गीत ) -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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हमरा   कहिह   राशन   पानी  लावेला. करोना के खतरा में जिंदगानी लावेला.            चारों   तरफ हौ  अब लाकडाउन के  घेरा            सुनसान सड़क पर भूतवन करले हौ डेरा उलट-पुलट के  रख देलको हे इ वायरस घर   ही   में  बैठके   हौ  रवानी  लावेला            जितना  हौ  घर  में  उतने  में  काम  चलाव            कम ही कम में सजनी अपन काम फरियाव इ संक्रमण काल भी जलदी ही कट जयतो मिलके   हौ   जज्बा   हिंदुस्तानी   लावेला          इहां पुलिस डॉक्टर सब कर रहलन हे रखवाली          आउर   हमरा   घर   ही  में   बैठेला  हौ  खाली खाली माथा मत धुनS बात तनी तू सुनS इ  जंग  में  जीत  के...

पहचान नहीं रहे हैं-धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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सभी   जान  तो   सही  रहे  हैं;  लेकिन    मान तो  नहीं  रहे  हैं;  समय   के   फेर   यहीं   रहे  हैं;                अभी   पहचान   नहीं  रहे  हैं.  जिस दिन हम जग में   नहीं  रहेंगे;  सब    मुझे      अपना   ही   कहेंगे;  बहुत      अपनापन        दिखायेंगे;               आज   तो   जान  नहीं   रहे  हैं.   आज    मिलने   से   मुकरते    हैं;  देखते     ही      दूर      हटते     हैं;  बात  -  चीत    से   भी   डरते   हैं;          ...

कोरोना के प्रहार (मगही गीत) -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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  जहिया  से  कोरोना  के  प्रहार  हो  गेल. दुखवा   हमर  राई  से  पहाड़    हो  गेल. इ   छोटकी  नींबूइया  अनार   हो    गेल, सउसें  गउआं  हमर   बीमार   हो    गेल. अमिया  के  पेड़बा   छतनार    हो  गेल,  टिकोरवा   पर   लट्टू   संसार     हो  गेल. सबसे   अगाड़ी   हमर  बिहार  हो   गेल,  सांसत   में   सौंसे    सरकार    हो   गेल.  मरघट  जइसन  सगरो बाजार हो गेल,  सब   लूटेरवन  के जइसे बहार  हो गेल.  धरममा    के   कई    ठेकेदार   हो  गेल,  भूख  से  तड़पइत हमरो लिलार हो गेल.  इ   दुनिया अब बहुत समझदार हो गेल,   कोरोना  अब...

गुल खिल रहे हैं -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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हम  रोज उनसे मिल रहे  हैं; वे    रोज हमसे  मिल रहे  हैं;               रोज  नये  गुल खिल  रहे  हैं. समर्थ  शमशीर  चल रहे  हैं; बहुत तीक्ष्ण तीर चल रहे  हैं;                 हृदय  के दरख़्त हिल रहे  हैं. गा     रहीं      वासंती    हवायें, लेकर    प्रेमियों    की   दुआयें,                 प्रेमी   तेवर    बदल   रहे  हैं. बागों     में     गूंजते     भंवरे, कलियों   के  नैन  हैं   मदभरे,                तितली  के  पर निकल रहे  हैं. ना  छूटे  अब  हिना का  रंग, चलती   रहे  प्यार की  तरंग,       ...

दु:ख -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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दु:ख     जब   पसर   जाता  है. स्वप्न   तब    बिखर   जाता   है. सबकुछ  अकस्मात   खोने   के, दर्द   का   तब  असर  आता  है. हृदय  में  हरपल  छल का  घाव, पुनः   तुरन्त   उभर   आता   है. हृदय-तल     के    अंतर्द्वंद्व    में,  समय   मानो   ठहर   जाता   है.  अपना   पराया  का  भाव-चित्र,  हृदय-पट  से   बिसर  जाता  है.  भावनाओं   का  दंश   मन  को, नव   पीड़ा  से    भर    जाता है. प्रीत  भरी  बात   की  मधु  याद, हृदय  में  तब   उतर   आता   है. औचक   हौले   से  अधरों   पर, चुम्बन...

जीवन-धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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                जीवन  कितना   अनुपम   यह   जीवन  है. सुख-दुख  का नित मधुर मिलन है. चंचल    मन   की    मादकता   से, कभी   स्नेह  की    समरसता    से, गत्वर    जीवन   का    प्रतिक्षण  है. जैसे    कलिका    की     कोमलता, अलि    को     भटकाती   चंचलता, परिमल     से     भरा   तपोवन   है. करुण    उदासी   पतझड़  की  भी, जीवन    लाता    ऐसे     क्षण   भी, अश्रु-हास   का   विरल   कलन   है. जभी      खुलेंगी     चेतन     आंखें, फैलेंगी     तब       जीवन     शाखें, सहज    ...

औरत की मजबूरियां -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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समाज  की यह कैसी विचित्र मजबूरियां! औरतों  के  हाथ में  सौ-सौ  हथकड़ियां!! आजादी  का  जश्न  लगता बहुत  फीका, औरतों  को  घर में  ही  इतनी ड्योढ़ियां! सिर्फ   कहने  को  भारत  है  हमारी  मां, औरत  के  पांव  में  इतनी क्यों  बेड़ियां! सभी जगह डर का एक अनजान साया,  उसके  लिए  जैसे  सिमटी  हुई  दुनिया! हर शख्स क्यों अब दीख  रहा है शैतान, औरत  के लिए  दिल में सिर्फ हैवानियां! वक्त  ठहरता  है  कहां  किसी  के  लिए,  ठहर  जाती  हैं बस जिंदगी की घड़ियां!                                 -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

बेटी -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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घर में खुशी  का कभी टोटा न करो। मन बेटियों का कभी छोटा न करो।। दुनिया  में जीने  का  हौसला  बढ़ा, उसके  सपने  कभी  समेटा न करो।।  दरिंदों  को चाहे तो  कर दे  खतम, बढ़ते कदम को कभी रोका न करो।। उसी ने सजाया  घर  कोना-कोना, घृणा अपने हृदय में  फेंटा न करो।। जागे  हैं  उसकी  आंखों में  सपने, उन उमंगों को  कभी टोका न करो।। चाहती  है   संवार  देना  दुनिया,  पत्थर तो कदमों  में फेंका न करो।।                                     -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

मां -धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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मां! तुम्हारी दो मृदुल आँखें, खोल देती हैं भावनाओं की न जाने कितनी पाँखें! भाव-प्रवण हम भावनाओं के अंतरिक्ष में उड़ते स्वछन्द, कलरव करते! हमारे चतुर्दिक फैल जाती हैं स्नेह, ममत्व, करुणा, वात्सल्य की अनगिनत शााखें! उभर आते हैं  तुम्हारी स्मृतियों के असंख्य बिम्ब-प्रतिबिम्ब!

बाबा भोलेनाथ का मगही भजन-धर्मेन्द्र कुमार पाठक

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श्रीहरिनाथेश्वर शिव,पाठक बिगहा,जहानाबाद    भोला हमर बड़ी धुरवा रे,                      पीस खाए भांग-धतूरवा।। पीसहु के न गौरा के लूरवा रे,                       कइसे खाये धतूरवा।।१।। जटा से निकले गंगा के धरवा रे,                       पीय भोर भिनसरवा।।२।। बसहा बयल चढ़ल  सुरवा रे,                     हाथ में  शोभे तिरशूलवा।।३।। गले में नाग फुफकरवा रे,                           माथ पर  चंदा के नूरवा।।४।। डमरु बजावे डिमडिमवा रे,                        संग नाचे भूत बैतलवा।।५।। सबके नचावे हमर भोलवा रे,                             नाचे चांद सूरुजवा।।६।। ...

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